हमें तो समाज ने इंसानियत का दर्जा भी न दिया

दलित किसानो कि  आर्थिक मजबूरी

अपने उपन्यास “जूठन” में ओमप्रकाश वाल्मीकि जी बड़ी ही कलाकारी से एक आत्मकथात्मक शेली का प्रयोग करते हुए पाठकों को भारतीय समाज की इस मान्यता की झलक देते हे जहाँ, उनको समाज एक इंसान जितनी इज़्ज़त भी नहीं देता था। नीची जात का होने के कारण उन्हें अपने दोस्तों, सहपथियों और अत्यादि से ताने सुनने पड़ते थे। इन “नीची जात” के लोगों को गुलमो के भाँति खेतों में बिना पगार बिना अनाज काम करवाते थे। खेतों की फ़सल काटते समय उन्हें कितना कष्ट हो उससे ज़मीनदारो को कोई मतलब नहीं। हम समझते हे कि ऐसा अतियाचार हमारे देश वासियों पर सिर्फ़ अंग्रेज़ी राज के समय में होता था, दुःख की बात तो यह है की कई पीढयो से हमारा समाज, हमारे वेद और धर्म इसी ग़ुलामी को बढ़ावा देते है। हमारे समाज कि  उन्नति का प्रतीक है की अंगरेजो से आज़ादी मिलते ही देश के संविधान में सब लोगों के सामानीय अधिकारो को लिखा गया था। पर जैसे वाल्मीकि जी की यह कथा दर्शाती हे एक बदलते रूढ़िवादी समाज में यह बदलाव आसानी से नहीं हासिल होते हे।

कहने को तो वाल्मीकि जी को भी स्कूल जाने का हक़ था पर उनके हेड्मैस्टर के कारण उन्हें मैदान में तपती धूप में झाड़ू लगानी पड़ती थी। कहने को तो सबको नौकरी पाने का अधिकार था पर नीची जात के लोगों को पीठ-तोड़ मज़दूरी करनी पड़ती थी। जब समाज में न इनकी आर्थिक स्थिति न इनके अधिकार एक समान थे तो भला इन्हें कैसे मिलता इंसानियत का दर्जा, खाने के इतने लाले थे की शादियों में बाहर परात लेकर बैठना पड़ता था, जूठन इखट्टा करने हेतु।भला कौनसे समाज में लोगों को दूसरों के बचे-कूचे खाने पर अपना पूरा साल बिताना पड़ता है? भला कौनसे समाज में गाए, भैंस को सर्दियों में इंसानो से ज़्यादा आराम और ध्यान मिलता है? भला कौनसे समाज इंसानो को जानवरो की तरह गालियाँ दे-देकर कोसने की सहमति में है। ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के इस उपन्यास ने प्रकाशित होने के बाद हमारे समाज में ठीक यही पराशन उठाए थे- भला क्यों हम नीची जात के लोगों को इंसानियात का दर्जा नहीं देते है?

Print Friendly, PDF & Email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *