सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती ने लघु उपनायस में सामाजिक मुद्दों को पाठकों के सम्मुख प्रेम कहानियों के माध्यम से रखा है।उपन्यास का अंतिम अध्याय आशावादी संदेश का संचार करता है।

 

सूरज का सातवाँ घोड़ा श्री धर्मवीर भारती द्वारा रचित एक लघु उपन्यास है। इस उपन्यास का प्रकाशन १९५२ में हुआ था। भारती जी ने इस उपन्यास में सात दोपहरों में  अलग-अलग कहानियाँ नहीं बल्कि एक कहानी सुनायी है क्योंकि हर कहानी दूसरी कहानी में गुमफित है। इस उपन्यास की रचना नवीन किस्सगोई शैली में की गयी है और इससे भारती जी के सबसे श्रेष्ठ कार्यों में से एक माना जाता है। लेखक ने इस उपन्यास में कई सामाजिक समस्याओं  को पाठकों तक पहुँचाया है, जैसे की दहेज की समस्या, आर्थिक संघर्ष की समस्या, महिला शोषण की समस्या, अनमेल विवाह की समस्या, आदि। इस उपन्यास के द्वारा लेखक पाठकों को भारतीय समाज की असलियत से अवगत कारवाँ चाहते हैं जहाँ ऊपर से सब अच्छा है परंतु अंदर ही अंदर बहुत गंदगी है।

 

इस उपन्यास की पहली कहानी का शीर्षक है: नामक की अदायगी। पहली दोपहर में सुनायी गयी इस कहानी में लेखक ने गोत्र विभाजन की समस्या पर प्रकाश डाला है। यह कहानी मानिक मुल्ला, तन्ना एवं जमुना के बारे में है। इस कहानी में हम देखते हैं की जमुना और तन्ना एक दूसरे से प्यार करते थे परंतु उनका विवाह नहीं हो पता है क्योंकि तन्ना का गोत्र जमुना के गोत्र से छोटा होता है। इसके तहत जमुना की माँ कहती हैं की चाहे उनकी बेटी की शादी न हो परंतु वह कभी भी उसकी शादी तन्ना से नहीं करेंगी। तन्ना के पिता भी बिना दहेज वाली जमुना से अपने बेटे की शादी नहीं करेंगी। अंत में हम देखते हैं की जमुना की बढ़ती उम्र और दहेज न होने की वजह से उसका विवाह एक बूढ़े ज़मींदार से कर दिया जाता है। इसी प्रकार लेखक हमें दिखाते हैं की दहेज की प्रथा एवं गोत्र विभाजन की वजह से कई अनमेल विवाह होते हैं जिसकी वजह से बहुत लड़कियों की जोंदगी ख़राब होती है।कहानी का निष्कर्ष यह निकलता है की हर घर में एक गाय होनी चाहिए क्योंकि गाय होने से भारत में दूध की नदियाँ बहेंगी और लोग स्वस्थ रहेंगे।

 

दूसरे अध्याय का शीर्षक है घोड़े की नाल। इस कहानी में लेखक ने पाठकों के समक्ष एक विचित्र परिस्थिति का प्रस्तुतीकरण किया है। इस कहानी में हम देखते हैं की जमुना अपने जीवन का रास्ता ख़ुद बनती है बिलकुल जमुना नदी के भाँति। जब उसे समझ आता है की जब तक वह माँ न बने तब तक उसे समाज में इज़्ज़त नहीं मिलेगी तब वह इस कार्य को सम्पूर्ण करने हेतु रामधान से सम्पर्क बनती है। ऐसे में हमें यह देखने को मिलता है की उस समय भी कई स्त्रियाँ ऐसी थी जो की अबला नहीं थी, सशक्त थी। अंत में हम यह भी देखते हैं की एक टाँगेवाला- रामधान एक ज़मींदार की सहायता करता है उनके परिवार को आगे बढ़ाकर। इस कहानी में लेखक पाठकों को यह बताने का प्रयत्न करते हैं की हमें किसी भी पेशे को नीची नज़रों से नहीं देखना चाहिए।  तीसरी दोपहर में मानिक मुल्ला ने कहानी का शीर्षक नहीं बताया।इस कहानी में वक़्ता: मानिक मुल्ला तन्ना की कहानी का चित्रण करते हैं। वह तन्ना की यौन उत्कंठा को दिखाने के साथ ही साथ हमें यह भी बताते हैं की तन्ना के जीवन में “उमस” भारी पड़ी थी जिसकी वजह से उसका जीना मुश्किल हो गया था। अंत में वह जमुना से भी दूर हो जाता है और उसकी पत्नी लिली भी उसे सम्मान नहीं देती। अंत में उसकी रेल की पटरी पर गिरकर मृत्यु हो जाती है जिससे पहले ही उसे अपनी दोनों को अपने से अलग होता हुआ देखना पड़ता है।

 

मालवा की युवरानी देवसेना चौथी दोपहर की कहानी का शीर्षक है।यह कहानी मानिक मुल्ला एवं लिली की प्रेम कहानी है। इस कहानी में हमें मानिक मुल्ला के चरित्र के अंदर झाँकने का अवसर मिलता है। हमें पता चलता है की वह बहुत बड़े कायर हैं जिन्होंने लिली की ज़िम्मीदारी नहीं ली। इस कहानी में हमें यह भी देखने को मिलता है की वह कितनी चतुराई से लिली को मालवा की युवरानी का उदाहरण देकर मना लेते हैं और कहते हैं की उसे उस लड़के से शादी करनी चाहिए जिससे उसकी माता उसका विवाह करना चाहती हैं। यह बात माँ कर लिली अपनी सहेली के साथ घूमने जाती है और तन्ना के साथ शादी के लिए माँ जाती है। इस कहानी का निष्कर्ष यह मिलता है की इंसान को खाना पीना चाहिए और सेहत बनानी चाहिए।पाँचवी दोपहर की कहानी का नाम काले बेंट का चाकु है।इस कहानी में लेखक भारतीय समाज में प्रचलित स्त्री शोषण की कहानी को पाठकों तक पहुँचाते हैं। यहाँ हमें दिखता  है की मानिक मुल्ला किस तरह से एक और स्त्री-सती से प्यार करते थे। लेकिन हर कहानी की तरह वह इस कहानी में भी उसकी ज़िम्मीदारी नहीं लेते। परंतु यहाँ वह एक क़दम आगे बढ़कर उसी स्त्री के पतन का कारण भी बनते हैं। जब सती के चाचा: चमन ठाकुर उसे ५०० रुपय के लिए महेसर दलाल को बेच देते हैं वह मानिक मुल्ला से मदद माँगती है। उसकी मदद करना तो दूर वह अपने भैया को जाकर बताते हैं जो की सती के चाचा और महेसर दलाल को बुला लाते हैं। कहानी के अंत में मानिक मुल्ला को पता चलता है की सती वहाँ से जा चुकी होती है और वह माँ लेते हैं की वह मार गयी।

 

छठी दोपहर की कहानी का शीर्षक नहीं दिया गया था। यह कहानी बहुत की दुखद रूप से शुरू होती है क्योंकि पाठक देखते हैं की मानिक मुल्ला सती का हथियारा माँ लेते हैं और अपने जीवन को नष्ट करने में लगे हुए होते हैं। वह ग़लत-ग़लत जगहों पर जाते हैं और खुदको अपने ग़म से बाहर नहीं आने देते। अंत में उन्हें एक दिन सती नज़र आती है। वह एक भिखारिन बन चुकी होती है और उसके साथ चमन ठाकुर और एक छोटा सा बच्चा भी होते हैं। मानिक मुल्ला यह माँ लेते हैं की वह अपनी गिरहस्ती में सुखी है और एक झटके में उनका दुःख ख़त्म हो जाता है। काले बेंट का चाकु सती के पास हमेशा रहता रहता था परंतु जब वह आख़री बार मानिक मुल्ला से मिलती है वे उसे ढूँढने जाती है और उसे वह नहीं मिलता क्योंकि वह चाकु मानिक के पास होता है। यह इस बात का प्रतीक है की मानिक ने आज तक अपने हर सम्बंध से कुछ ना कुछ लिया है किसी को कुछ दिया नहीं । सांतवी दोपहर का शीर्षक सूरज का सातवाँ घोड़ा है। यह पाठ बहुत ही छोटा है क्योंकि लेखक हमें इस पाठ में सिर्फ़ यही बताते हैं की इस पीडी में जो कमियाँ थी उसे आने वाली पीडी सुधारेगी। जमुना, लिली एवं सती के बचे भारतवर्ष की आने वाली पीडी हैं, वह ही सूरज का सातवाँ घोड़ा हैं जो की अभी भी एकदम पवित्र हैं। 

 

उपन्यास का शीर्षक: सूरज का सातवाँ घोड़ा यथोचित है क्योंकि मानिक मुल्ला इस उपन्यास को ७ दोपहरों में अपने मित्रों को सुनाते हैं। पहले छह घोड़े इस पीडी की कमज़ोरियों को दर्शाते हैं लेकिन सातवाँ घोड़ा यह दर्शाता है की भविष्य अब भी उज्वल है। इस निष्कर्शवादी उपन्यास को भारती  जी ने बड़े प्रभावशाली रूप से लिखा है। भाषा काफ़ी वर्णतमक है। एक उदाहरण है: “दो चोटियाँ की थी, माथे पर चमकती हुई बिंदी लगायी थी”। इस उपन्यास में जब भी मानिक मुल्ला अपने दोस्तों से बात कर रहे होते हैं तब संवाद शैली का प्रयोग किया गया है। संवाद बहुत की छोटे एवं चुस्त हैं जैसे: “भई कहानी बहुत अछी रही”।लेखक ने उपन्यास को  रोमांचक बनाने के लिए भाषा को सरल एवं सहेज रखा है जैसे की: “बात क्यों टूट गयी जमुना”। ऐसी भाषा का चयन उन्होंने शायद इसीलिए किया जिससे की ज़्यादा से ज़्यादा लोग इस उपन्यास को पढ़कर इससे सीख ले सकें।लेखक ने फंतासी शैली का भी प्रयोग किया है परंतु यह पाठ में कुछ ज़्यादा योगदान नहीं देता क्योंकि मानिक मुल्ला कहते हैं की सपनों का असलियत से कोई वास्ता नहीं होता है । इस उपन्यास के कायी निष्कर्ष हैं जो की हर पाठ के बाद लिखे गए हैं। अतः भारती जी ने इस उपन्यास के माध्यम से समाज की कई कुप्रथाओं को पाठकों के सामने रखा है परंतु उन्हें यह आशा भी दी है की भविष्य में भारत बदलेगा।

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