जूठन पढ़ते-पढ़ते मेरे मन में बहुत सारे विचार और बहुत ही सारे सवाल आए हैं। इस आत्मकथा के द्वारा मुझे बहुत सारे वैश्विक मुद्दों के बारे में भी पता चला। इस दलित आत्मकथा के द्वारा मुझे भारत में प्रचलित जाती प्रथा के तहत होने वाले अन्यायों के बारे में पता चला है। सबसे पहले तो मैं इस बात से अवगत हुई हूँ की भारत में अलग-अलग जातियों के रहने का स्थान अलग था। इन जातियों में कोई सम्बंध नहीं थे बजाय इस बात के की एक जाती दूसरी जाती को अपना ग़ुलाम मानकर उनके साथ बुरा बर्ताव करती थी। इसके साथ ही साथ मुझे यह भी पता चला है की उस समय “बेगार” नाम की एक प्रथा भी थी जिसके अनुसार छोटी जातियों के लोगों को बिना पैसों के काम करना पड़ता था और इस काम के बदले में उन्हें सिर्फ़ गालियाँ ही सुनने को मिलती थी। छोटी जातियों के लोगों को बड़ी जाती के लोग अपने घर की शादियों में काम करने के लिए बुलाते थे।
इस काम के बदले, छोटी जातियों के लोगों को सिर्फ़ “जूठन” मिलती थी। जूठन का अभिप्राय है बचा हुआ खाना। इस बचे हुए खाने को ही यह लोग लम्बे समय तक अपने घरों में बचा कर रखते थे। उस समय तो “फ़्रिज” या “माइक्रोवेव” भी नहीं होते थे तो उन्हें अपना सारा खाना धूप में सुखाकर रखना पड़ता था। अतः वह लगभग सदा हुआ खाना खाते थे। इस आत्मकथा की वजह से ही मुझे यह बात पता चली की नीची जाती के लोगों को मरे हुए जानवरों को उठाना पड़ता था। इन जानवरों की खाल उठानी पड़ती थी और इस सब के बदले उन्हें सिर्फ़ २०-२५ रुपय मिलते थे। परंतु ओमप्रकाश वाल्मीकि के परिवार ने बहुत क्रांतिकारी के काम किए थे। जैसे की उन्होंने ओमप्रकाश जी को पढ़ने दिया था, उन्होंने विधवा विवाह की प्रथा को ख़त्म किया था और उन्होंने जूठन की प्रथा को भी तोड़ा था। इनहि बातों को पढ़कर, इन लोगों के कष्टों को देखकर मुझे दुःख हुआ और मेरे मन में में बार -बार एक ही प्रश्न आया- “ क्यों इनकी परेशानियों के बारे में दुनिया नहीं जानती, इनकी तकलीफ़ों को दुनिया को कैसे बताएँ”?